भारतीय स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ पर
१५ अगस्त, १९४७ दिन शुक्रवार की सुबह, हमारे भारतवर्ष की चिर प्रतीक्षति आजादी विभाजन की वास्तविकता के साथ इस महाद्वीप पर उतरी।
हमारा भारतवर्ष स्वतंत्र हुआ, ९० वर्षों या उसके और पहले के सतत् प्रयासों और गौरवपूर्ण बलिदानों के फलस्वरूप। गांधी और नेहरू दोनों ही भारतीय जनता की भावनाओं को प्रतिबिम्बित कर रहे थे। आजादी के ठीक पहले जो सोचा जा रहा था उसमें यह बात प्रमुखता से निर्धारित थी कि हमें आने वाले दिनों में जो आजादी मिलेगी उसमें राष्ट्र को संचालित करने वाले संगठन का प्रमुख, कार्य विभिन्न वर्गों, समुदायों, समूहों और अंचलों को एक राष्ट्र के ढ़ांचे में ले आना सम्मिलित होगा।
आज जबकि आजादी मिले हमें ५० वर्ष हो चुके हैं मौजूदा हालातों पर गौर करें तो हम पायेंगे की आज भी हमारे भारतवर्ष में अलगाववाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद की विषबेल बजाय मुरझाने और सूखनें के एक अलग आधार पर पुष्पित-पल्लवित ओर पोषित रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है।
आजादी के पहले जो लक्ष्य आने वाले दिनों के लिए प्रमुखता से निर्धारित किया गया था, उसको तो हम प्राप्त ना कर सके अलबत्ता भारतवासियों के दिलों की दूरियां आपस में बढ़ती ही गयी है।
तत्कालीन भारतवर्ष का जो आर्थिक परिदृश्य था वह बदहाली और विपन्नता से भरा हुआ था। जो विवेचनाकार थे वो इस सम्बन्ध में कटूक्तियां करते हुये कहते थे कि ‘‘गरीबी’’ भारतीयों की ‘‘नियति’’ है। और इनको इसी में पैदा होना है, जीना है और मर जाना है।’’ तब की परिस्थितियों में यह एक कटु सत्य भी थां
हमारे अन्दर जो सोच विकसित हो रही थी वो यह कि बस आजादी मिल जाने के बाद हमारे हाथ में अलादीन का चिराग होगा, जो मांगने पर देगा, ढ़ेर सारा आर्थिक विकास। पर जो सच सामने आया वह कहीं ज्यादा भयानक रूप में था। आजादी मिली और हमारी कर्मठता, कार्य करने की लगन और अद्वतीय साहस की पराकाष्ठा रंग लायी और समय की तमाम विपरीत परिस्थितियों को पार करते हुये हम तेजी से आगे बढ़े और हमारी ईमानदारी तथा कर्तव्यपरायणता के बदले हमें एक दौर में अभूतपूर्व सफलतायें मिली। वो सफलतायें जो हमारे विकास को चिन्हित करती थीं। यहां तक की कई उन क्षेत्रों में जहां हमारे पर्दार्पण करने की एक और गौरवपूर्ण मुकाम पर पहुंचने की कहीं कोई सम्भावना नहीं थीं, वहां पर हम अपनी मेहनत से पहुंचे और कामयाब हुये।
परन्तु आज स्थिति क्या है? खाद्यान्न के क्षेत्र में कई गुना रिकार्ड तोड़ उत्पादन के उपरान्त भी भुखमरी की भयानक समस्या हमारे समक्ष उत्पन्न हो रही है। यही हाल और भी उन तमाम तकनीकी या वाणिज्यिक अथवा क्षेत्रीय प्रगति वाले क्षेत्रों का है जहां पर हमने अपने स्वयं के बलबूते पर उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। परन्तु फिर भी नतीजा वह ढ़ाक के तीन पात स्थिति जय की तस है। प्रत्येक क्षेत्र मे समस्याओं का अंबार दिखायी पड़ता है।
पहले कपड़ा और भोजन जो जीवन की दो मूलभूत आवश्यकतायें है, बिल्कुल नहीं था, अब है और बहुत मात्रा में है, परन्तु फिर भी पर्याप्त नहीं है। कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों का है।
विकास हुआ है, परन्तु अपर्याप्त रूप में। विकास की गति बहुत धीमी है, उस पर भी भ्रष्टाचार हावी है। व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से संचालित करने वाले अधिकांशत: संगठन भ्रष्टाचार में आंकठ डूबे हुये हैं। सभी को अपना-अपना कमीशन चाहिये, देश का क्या होगा? राष्ट्र किस दिशा में आगे बढ़ेगा इस बात की किसी को कोई चिन्ता नहीं है। प्रत्येक क्षेत्र में अव्यवस्थाओं का बोलबाला है। ‘‘लूट मची है, लूट और लूट सके तो लूट’’ इस कहावत को चरितार्थ होते आप प्रत्यक्षत: देख सकते हैं।
कानून का नाम और सहारा ले-लेकर ही लोगों का उत्पीड़न किया जा रहा है। बात चाहे पुलिस की हो या फिर अन्य व्यवस्थापक समितियों की हर तरफ अनाचार हावी है, रक्षक ही भक्षक बने बैठे हैं। गरीबों और लाचारों की कहीं कोई सुनवायी नहीं है, उन पर जुल्म और अत्याचार आज भी अंग्रेजी हुकूमत के दौर की भयावह सच्चाई की याद ताजा करा देता है।
क्या इतने वर्षों के उपरान्त आजादी इसीलिये प्राप्त की गयी थी? जिन पर हमारी रहनुमाई का, हमारे कर्त्तव्यों और क्षेत्रों के अनुसार हमारे भरण-पोषण रक्षण का दायित्व है वो सभी निरंकुश और तानाशाह हो गये हैं। आये दिन अत्याचार और जुल्म का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है, इन पर अंकुश लगाने वाली मशीनिरियां फेल हो चुकी है, बल्कि कहा जा सकता है कि वे ही इन्हें संरक्षण दे रही है। हमारी भावनाओं को कभी देश के नाम पर कभी जाति और धर्म के नाम पर और कभी क्षेत्र के नाम पर उभारकर, भड़काकर उसके साथ खिलवाड़ किया जाता है, उस पर कतिपय राजनीतिक दलों द्वारा अपने-अपने स्वार्थं की रोटियां सेंकी जाती है। राजनीति की बिसात पर आम जनता का नाम ले-लेकर गन्दा और घिनौना खेल रचा जाता है, सिद्धान्तों और आदर्शों की दुहाई देकर हिंसा का नंगा नाच देखा जाता है।
अफसोस कि आम आदमी ये सबकुछ देखने, सुनने, जानने और समझने के बाद भी कुछ करने के नाम पर अपनी लाचारी, बेबसी का रोना रोते हुये मजबूरी का प्रदर्शन करता है।
आज जबकि आजादी को पचास साल बीत चुके हैं, हम सबको स्वविवेक से पूरी चेतना के साथ यह चिंतन करना चाहिये कि क्या इसी बिन्दु पर पहुंचने के लिये हम चले थे। आज हमने प्रगति और विकास की दौड़ में जो दूरी तय की है, वह हमें इस बात का संतोष दे सकती है कि आज भारत के प्रधानमंत्री पाकिस्तानी हिस्से से आये एक शरणार्थी रहे हैं, राष्ट्रपति केरल के एक अति साधारण हरिजन परिवार से हैं, और भारत के सबसे बड़े व्यवसायिक घराने के मुखिया ने छठें दशक के आखिर में धागे के विनम्र सेल्समैन के रूप में काम शुरू किया था, या फिर कई राज्यों के मुख्यमंत्री या आलाकमान कभी बहुत निम्न और विपन्न तबकों से ताल्लुक रखते थे। और भी कई क्षेत्र हैं, जिनके उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
इन सबके अतिरिक्त एक बात और जो सबसे ज्यादा मायने रखती है तो यह कि संसार के सबसे बड़े लोकतांत्रक देश भारत में लोकतन्त्र मजबूत और सक्रयि रूप में सामने उपस्थित है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आम आदमी की अपने मताधिकार के प्रति जागरूकता और मजबूत विपक्ष है। इस प्रकार इतना तो स्वयं सिद्ध है कि इसपचास वर्षों के तमाम उतार चढ़ावों में हमने सबकुछ खोया ही नहीं अपितु बहुत कुछ पाया भी है, परन्तु बढ़ती हुयी जनसंख्या और जन समस्याओं के सम्मुख ये बहुत ही अपर्याप्त है।
आजादी के पहले हमने इस बात के लिये कुर्बानियां दी कि हम आजाद हो और अब हमे इन आजादी को बरकरार रखने के लिये त्याग और बलिदान करना होगा। विकास के नये रास्ते तलाशने और आयाम छूने के साथ ही हमारी प्राथमिकता इस बात की होनी चाहिये कि समाज के अन्तिम आदमी की आंखों के आंसू पोछे जा सके और उनके भी जीवन में आजादी सही मायनों में सिद्ध हो सके। और वो आजादी जिसे सारे देशवासी बड़े प्यार और शिद्दत के साथ महसूस कर सकें।
भारतीय स्वतन्त्रता की पचासवीं वर्ष गांठ पर विशेष रूपसे समर्पित है |
बी. डी. त्रिपाठी
१५-०८-१९९७