जब कि मै यह लिख रहा हूँ तो बहुत रोष में हूँ और किंचिद कुपित भी .
भले ही मेरा राजनीतिक जीवन औरों से भिन्न और अलग हो किन्तु मुझे अधिवक्ता समुदाय से सम्बंधित होनें पर गौरव का अनुभव होता है . वकालत के क्षेत्र में एक अधिवक्ता के रूप में शामिल होना मेरी पहली और आख़िरी पसंद थी 2001 में वकालत के पेशे में आनें और बाद में पंजीकरण करानें के उपरान्त भी कई अवसर मिले जब तमाम वित्तीय और कारपोरेट संस्थानों में विधिक कामकाज की नौकरी का ऑफर मिला लेकिन आजादी-स्वछंदता-आत्मसम्मान पर आंच न आये इसलिये बड़े विनम्र स्वरों में इनकार किया, आज जब पूरे समुदाय के आत्मसम्मान पर प्रहार हो रहा है तब ऐसा प्रतीत हुआ की मुझे अपनी बात साफगोई से कह देनी चाहिये.
अभी कुछ एक डेढ़ वर्ष पहले पंजीकृत अधिवक्ता जनों का पुनर्मूल्यांकन करते हुये बार काउन्सिल ऑफ उत्तर प्रदेश की ओर से COP नंबर निर्गत करते हुये नये परिचय पत्र दिये गये जो की केवल 2022 तक के लिये मान्य हैं जाहिर है की अब से ठीक 02 साल 10 महीनें बाद वह प्रक्रिया फिर दोहरानी पड़ेगी ( जिसके आधार पर COP नंबर वाले परिचय पत्र निर्गत किये गये है,) और अभी फिर बीच में ही नये परिचय पत्र बनवाने की अनिवार्यता थोपी जा रही है, मै साफ़ तौर पर पूछना चाहता हूँ की क्या बार काउन्सिल ऑफ उत्तर प्रदेश की ओर से जारी परिचय पत्र को निराधार-निष्प्रयोज्य और जाली माना जाये, वकीलों से प्राप्त चन्दों पर जिन्दा रहनें और मौज-मस्ती करनें वाले ये रहनुमा संस्थान कितनें विश्वसनीय रह गये हैं -?
यह एक सामान्य बौद्धिक व्यक्ति का सनातनी धर्म है की किसी गैर जरूरी क़ानून के विरुद्ध आवाज उठाये, तिस पर अधिवक्ता समुदाय से तो आशा की जाती है की वह सर्वप्रथम पहल करेगा . अधिवक्ता कौम ही लड़ाकों की है क्या वो लड़ाकापन हम खो चुके हैं और वो भी तब जब की गांधी जी का दिया सत्याग्रह दिव्यास्त्र हम सब की थाती है, याद रखिये अन्याय और कुतर्क का प्रतिकार मनुष्य और मनुष्यता को जिन्दा रखनें वाले आभूषण हैं वरना मनुष्यों के पालतू जानवरों गाय, भैंस, घोड़ा, हांथी, कुत्ता, बैल, आदि और मनुष्यों में क्या अंतर रह जायेगा.
अधिवक्ता संगठनों के उच्च पदों पर बैठे लोग, माननीय न्यायमूर्ति बननें के लोभ में, आम अधिवक्ता के आत्मसम्मान का अनादर कर रहे हैं तो क्या इस वृहत्तर समुदाय को चुप बैठकर तमाशा देखना चाहिये-?
मुझे नहीं मालूम की क्या रणनीति तय होनी चाहिये बस इतना वादा है की गर बात प्राणोत्सर्ग की भी आयेगी तो “मै” पंक्ति में पहला व्यक्ति बनकर सबसे आगे रहूँगा, यदि ऐसा कहनें के लिये अथवा ऐसा करनें के लिये मुझे कोई दण्ड दिया जाना तय हो तो मुझे वह वीभत्स दण्ड दें की मेरी रूह भी दुबारा शरीर धारण करनें लायक न रह जाये चूँकि तमाम मुर्दा शरीरों के बीच में रहनें से अच्छा होगा अनन्त काल तक प्रतीक्षा करना.
जय हिन्द, जय भारत, जय अधिवक्ता